Friday, July 25, 2008

"जस्ट अनदर डे" -इन बैंगलोर

सुबह के साढे सात बज रहे थे ,हमेशा की तरह आज भी मैं अपनी बालकनी में ऑफिस की कैब का इंतजार कर रहा था ! मौसम काफी सुहावना हो गया था,हल्की-हल्की बारिश शुरू हो गई थी ,इससे पहले की मैं मौसम की रूमानियत को महसूस करता ,कैब के हार्न ने ध्यान बँटा दिया ,और हमेशा की तरह मैं ऑफिस के लिए निकल पड़ा ! ऑफिस में सबकुछ हमेशा जैसा ही था,साथियों से दुआ सलाम करना,दर्जनो ई -मेल्स चेक करना , कॉफी ब्रेक लेना ,वापस काम पर लगना और दोपहर को लंच के लिए कैफेटेरिया जानासब कुछ हमेशा की तरह ही चल रहा था लंच से वापिस आकर मैं दोबारा काम पर लग गया ,करीब आधे घंटे के बाद ख़बर आई की शहर में बम धमाके हुए हैं !


कुछ इंसानों ने आज फिर इंसानियत का गला घोंटा था, पाँच जगहों पर सात बम धमाके हुए ,दो लोग मारे गए और करीब बीस घायल हुए थे ! एक बम धमाका हमारे ऑफिस से चंद मील दूर ही हुआ था ,उस धमाके की आवाज़ तो हम तक नहीं पहुँची पर ख़बर सुनकर सब सिहर ज़रूर गए थे ! सभी लोग अपने घरवालों और दोस्तों से संपर्क करने की कोशिश कर रहे थे ! ख़बरों से पता चला की शहर का ट्रैफिक ठप्प पड़ा है और फ़ोन लाइने भी प्रभावित हुई हैं ! डिपार्टमेन्ट के डाईरेक्टर ने एक अर्जेंट मीटिंग बुलाई और अगले दिन ऑफिस बंद का नोटिस जारी कर दिया ! हमारा ऑफिस साल के ३६५ दिन चलता है ,कुछ लोग वीकएंड में भी काम करते हैं , छुट्टी की ख़बर सुनकर उनमे से कुछ लोग बहुत खुश थे और बम धमाको की प्रशंसा भी कर रहे थे कुछ देश के हालात से विचलित थे और कुछ लोग दूसरे शहरों में हुए बम धमाको की चर्चा में मशगूल थे , कुछ ये सोच कर परेशान थे की उनका वीकएंड ख़राब जो जाएगा और कुछ को फ्राईडे के ड्राई डे में तब्दील होने की चिंता सता रही थी ! लोगों का एक तपका ऐसा भी था जिसे बिल्कुल भी कोई फर्क नहीं पड़ा ,वो हमेशा की तरह अपने हँसी मजाक में लगे हुए थे एक से मैंने बम धमाको के बारे में राय जाननी चाही (शायद मैंने बहुत बड़ी भूल कर दी ) , जवाब सुनकर मैं अचंभित रह गया ,"बम धमाकों का क्या है होते रहते हैं , और लोग मरते रहते हैं ,चिल इट्स जस्ट अनदर डे डूड " , इंसान इतना भी स्वार्थी हो सकता है मैंने कभी सोचा नही था !

पाँच बज चुके थे ,ऑफिस से कैब लेकर वापस घर आ गया ,रास्ते भर बम धमाको से जुड़ी बातें दिमाग में चलती रहीं ! बहुत बेचैनी हो रही थी , मैं सुबह की तरह फिर से बालकनी में आ गया , थोडी देर में बारिश भी शुरू हो गई , लेकिन अब बारिश की बूंदों में वो नमी नहीं थी जो दिल पर छाई उदासी की आग को ठंडा कर सके ! जेहन में कई सवाल चल रहे थे , पर जवाब एक भी नही था ! कभी अपने इंसान होने पर शर्म आई और कभी ये सोचा की किसी के झूठे जेहाद के लिए मासूमो को जान गँवानी पड़ती है ! क्यों हर बार आम इंसान को ही भुगतना पड़ता है ??, क्यों हर बार किसी मन्दिर ,मस्जिद और बाज़ार को ही निशाना बनाया जाता है ??मुझे तो यकीन हो चला है की ऊपर वाला भी हम इंसानों को बना कर पछता रहा होगा ! राज्य सरकार को इंटेलिजेंस ब्यूरो ने पहले से आगाह किया था ,लेकिन कोई भी सुरक्षा कदम नहीं उठाये गए ! अभी भी जेहन सवालों से भरा था ,पर जवाब एक भी नहीं था


हम अपनी संवेदनशीलता खोते जा रहे हैं , दूसरों की तकलीफ देखकर भी नही पिघलते और "जस्ट अनदर डे" कह कर आगे बढ़ जाते हैं , इंसान और इंसानियत का तो अब खुदा ही मालिक है !

Tuesday, July 22, 2008

शाम

ये शाम सज कर आई है आज मेरे लिए ,
होठों पे लिए मुस्कान और जलाये तारों के दीये ,
कभी यों लगता है मैं बना हूँ इसके लिए,
और ये बनी है सिर्फ़ मेरे लिए
गर तुम भी देख पाओ इन अंधेरों की रौशनी को,
तो जान जाओगे कि हर रौशनी जली है किसी अंधेरे के लिए

Monday, July 21, 2008

रात का वादा...


आज सोचा है मैंने की डूबते सूरज को सलामी देकर ,इक काली स्याह रात का वादा लूँगा,

रात जिसमें तारे भी हों, जुगनू भी और तुम भी,

जो बस बातों-बातों में ही कट जाए,

जो बस आंखों-आंखों में ही गुज़र जाए,

जिसके आगोश में हम हो जायें गुम,

जिसके अंधेरे में सहर की चाहत को भी भूलें हम,

जिसमे अधूरी रहे न कोई बात,

जो बरसे हम पर बनकर रिमझिम बरसात ,

इक ऐसी रात का वादा लूँगा

आज सोचा है मैंने की डूबते सूरज को सलामी देकर ,इक काली स्याह रात का वादा लूँगा,.......

Monday, July 7, 2008

सदियाँ बीती हैं!!

एक बेजान बदन को ही जिंदा कहे फिरता है ,
इंसानों को मरे तो सदियाँ बीती हैं ,
वो वक्त और था जब इन्सान हुआ करता था,
और उसकी शरीक-ऐ-हयात इंसानियत भी जिया करती थी ,
किसी इन्सान का इंसानियत का हाथ थामे तो सदियाँ बीती हैं

वो वक्त और था जब इन्सान की आंखों में हया थी ,
उसके दिल में चैन और रूह में सुकून भी था
वो इज्ज़त किया करता था सबकी,
और सबसे किया करता था प्यार,
पर इन्सान का हया से नाता तोड़े सदियाँ बीती हैं

वो वक्त और था जब इन्सान रिश्तों को मानता था ,
वो भाई ,बहन ,माँ,बाप और दोस्तों को पहचानता था,
पर इंसान का हर रिश्ते का गला घोंटे तो सदियाँ बीती हैं

वो वक्त और था जब इन्सान खुदा से डरता था,
उसके सजदे में झुकता था,
और किया करता था उसकी इबादत ,
पर आज इन्सान ही बन बैठा है खुदा,
और इंसानियत के खुदा को मरे तो सदियाँ बीती हैं

किसी सच्चे इन्सान को गर फिर से जिला सकूँ ,
उसके दिल में प्यार और आंखों में हया भर सकूँ,
तो अपनी जिंदगी को कामयाब समझूंगा,
पर इंसानियत को को जिलाने की इसी कोशिश में तो सदियाँ बीती हैं

Saturday, July 5, 2008

मैं

खाक़सार हूँ मैं इस ज़माने में,
सारा जहाँ है इक कैनवस,मुझ दीवाने का,
खींचता रहता हूँ इसी कैनवस पर लकीरें,
कुछ बन जाती हैं तसवीरें,
कुछ रूप ले लेती हैं किसी अफ़साने का।

Tuesday, July 1, 2008

तू रोज़ नया.....

जिंदगी तू रोज़ नया गम देती है,हम हँस कर पिया करते हैं,
तू मारने की करती है कोशिश,और हम हँस के जिया करते हैं