सहर

तुम जो ज़रा और देर रुक जातीं ,तो सहर हो ही जाती ,
हम दोनों आजाद हो जाते इस काली स्याह रात की गिरह से ,
खैर जाने भी दो ,
रात ही तो है,
रात का काला अँधेरा ही तो है ,
तेरे बगैर मुझे सहर से क्या सरोकार,
तेरे बगैर तो सबा भी लू लगती.

Comments

Smart Indian said…
बहुत खूब, विक्रांत भाई, बहुत खूब!
Udan Tashtari said…
बहुत उम्दा, लिखते रहें.

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