तुम जो ज़रा और देर रुक जातीं ,तो सहर हो ही जाती ,
हम दोनों आजाद हो जाते इस काली स्याह रात की गिरह से ,
खैर जाने भी दो ,
रात ही तो है,
रात का काला अँधेरा ही तो है ,
तेरे बगैर मुझे सहर से क्या सरोकार,
तेरे बगैर तो सबा भी लू लगती.
Monday, June 30, 2008
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2 comments:
बहुत खूब, विक्रांत भाई, बहुत खूब!
बहुत उम्दा, लिखते रहें.
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