एक सफहा मेरी डायरी का,
कुछ नाराज़ है मुझसे ,
वो मेरी एक नज़्म छुपाये बैठा है ,
जैसे जादुई स्याही से राज़ छुपाये जाते हैं !!!!!
हर तरकीब आज़मा ली उसे मनाने की,
और अपनी नज़्म वापस हथियाने की ,
पर सारी कोशिशें बेकार हुईं ,
जैसे तूफानों में नशेमन बिखर जाते हैं !!!!
शायद नज़रों का धोखा है ,
या फिर कोई छलावा,
मैं कोरे कागज़ को ही नज़्म समझे बैठा हूँ ,
जैसे सहराओं में सराब* नज़र आ जाते हैं !!!!
*सराब ->दृष्टि भ्रम
Friday, January 23, 2009
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14 comments:
बहुत सुंदर लगी आप की यह डायरी.
धन्यवाद
वाह वाह. बेमिसाल रचना..इसका जवाब नही.
बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
अच्छी कविता है भाई विक्रांत जी...
एक सफहा मेरी डायरी का,
कुछ नाराज़ है मुझसे ,
वो मेरी एक नज़्म छुपाये बैठा है ,
जैसे जादुई स्याही से राज़ छुपाये जाते हैं !!!!!
Waa.....hh...! Bhot khooooob....!
विक्रांत, वाह बहुत सुंदर!
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बहुत ही सुंदर रचना है आपकी. गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें..
बहुत ही सुंदर रचना है आपकी. गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें..
adbhut rachna.isi tarah hum tak apni rachnaye pahuchate rahe.
लाज़बाब यथार्थ का प्रस्तुतीकरण
एक सफहा मेरी डायरी का,
कुछ नाराज़ है मुझसे ,
वो मेरी एक नज़्म छुपाये बैठा है ,
जैसे जादुई स्याही से राज़ छुपाये जाते हैं
बढ़िया नज्म है विक्रांत... जादुई स्याही से राज छिपाने की बात तो जैसे सोच के परे... उम्दा प्रतिमान और उपमान गढ़े हैं। हमेशा की तरह गहरी भावनाओं वाली कोमल सी नज्म।
बेहतरीन बेशर्मा साहब क्या कहना डायरी का !
होली की घणी रामराम.
Bahut khub likha hai.Badhai.
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