Saturday, July 5, 2008

मैं

खाक़सार हूँ मैं इस ज़माने में,
सारा जहाँ है इक कैनवस,मुझ दीवाने का,
खींचता रहता हूँ इसी कैनवस पर लकीरें,
कुछ बन जाती हैं तसवीरें,
कुछ रूप ले लेती हैं किसी अफ़साने का।

3 comments:

रश्मि प्रभा... said...

bahut badhiyaa

ताऊ रामपुरिया said...

कुछ रूप ले लेती हैं किसी अफ़साने का।
भई शर्माजी जरा अफसाने को आगे बढाइये !
आप आसमान से भी उंचे उडे !
यही शुभकामनाएँ

Dr. Shashi Singhal said...

वो थी मधुशाला बच्चन जी की और यह मधुशाला निहायत ही आपकी है । इस मधुशाला में आपका स्वागत है । अब ब्लॉग की दुनिया में आ गए हैं तो अब आप गुमनाम नहीं रहेंगे । अब अंधेरे नहीं ब्लॉगर आपके दोस्त होंगे । आसमान से भी ऊँचा उड्ने के आपके ख्वाब पूरे हों इन्हीं शुभकामनाओं के साथ