मैं
खाक़सार हूँ मैं इस ज़माने में,
सारा जहाँ है इक कैनवस,मुझ दीवाने का,
खींचता रहता हूँ इसी कैनवस पर लकीरें,
कुछ बन जाती हैं तसवीरें,
कुछ रूप ले लेती हैं किसी अफ़साने का।
सारा जहाँ है इक कैनवस,मुझ दीवाने का,
खींचता रहता हूँ इसी कैनवस पर लकीरें,
कुछ बन जाती हैं तसवीरें,
कुछ रूप ले लेती हैं किसी अफ़साने का।
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आरंभ ‘अंतरजाल में छत्तीसगढ का स्पंदन’
भई शर्माजी जरा अफसाने को आगे बढाइये !
आप आसमान से भी उंचे उडे !
यही शुभकामनाएँ