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Showing posts from 2008

अनामिका !!!!!!

सोचा था कि तुझे एक नाम दूंगा ,सारे नाम तेरी हस्ती के आगे फीके पड़ रहे थे ,फिर सोचा की नाम में क्या रखा है ,गुमनामी में भी एक नाम छुपा होता है !तुझे नज़्म कहने से भला है की तू अनामिका ही रहे ............ जब मैं ,मैं नही था ,तब मैं मेरे मैं होने की तमन्ना करता था , आज जब मैं ,मैं हूँ ,तब भी मैं,मैं होकर मैं नहीं ! ख़ुद को पहचानने के लिए सौ जिंदगियाँ भी नाकाफी हैं !!!!!!! एक रात ,रतजगों से ऊबकर ,मेरी आँखों ने मुझसे नींद की गुजारिश की थी , अब जो सोता हूँ तो नींद में मेरी आँखें रतजगों के ख्वाब देखती हैं ! न जाने ये आँखें मुझसे क्या चाहती हैं !!!!!!!!!! तेरी आमद पर फिर कोई सफहा खुले ,कुछ ऐसी ही उम्मीद है मेरे यारों को , तेरी आमद की उम्मीद में देख ,मैंने आज फिर सितारों से शब् सजाई है ! ये उम्मीदें भी अजीब होती हैं ,इंसानों को कभी ना-उम्मीद नही होने देतीं !!!!!!!!!!! मैं कौन हूँ?? मैं तो वही हूँ जो पहले था , न आलम बदला ,और ना ही दुनिया बदली है ! ख़ुद से अजनबी लोगों की पहचान भला क्या होगी !!!!!!!! ये बंजारन सी ज़िन्दगी,एक पल भी थमती नहीं, इस पल यहाँ डाला है डेरा,अगले पल की ख़बर नही ! सुना है ज़ि...

इक रोज़ जब.....

इक रोज़ जब ज़िन्दगी से फिर हारा था मैं, तो मैंने मौत से मौत मांगी, मौत ने भी दुत्कारा मुझे और कहा, जियेगा यूँ ,तो तेरी ज़िन्दगी ही तुझे मारेगी, हो जाएगा तू बेबस इतना,कि तेरी हर हिम्मत भी हारेगी! मौत मांगे नही मिलती, मौत खैरात में नही बंटती, मौत सिर्फ़ मरने का नाम नही, एक शानदार मौत को भी जिया जाता है, जा,जाकर फिर से जी,हर पल को अपने आगोश में ले, हर पल ज़िन्दगी कि आंखों से आँखें मिला, जा कह दे उस ज़िन्दगी से,मैंने जीना सीख लिया है, तुझको तो मैं जीतूँगा एक दिन, और अपनी मौत को भी जी जाऊँगा !!!!!!!!!!

कल रात सारी ...............

किताब ऐ माज़ी के वरक पलटते-पलटते , इक भूली हुई नज़्म से फिर मुलाकात हो गई ,उसने पूछा कैसे हो ??मुझे याद करते हो न ??मेरे मुंह से हाँ ही निकल पाई थी की वो मेरा हाथ पकड़ कर मुझे मेरे माज़ी में ले आई !ज़रा धुंध थी ,पर धीरे-धीरे सब साफ़ हो रहा था ,मैंने ख़ुद को कंप्यूटर साइंस की क्लास में देखा ,प्रोफ़ेसर साहब लेक्चर दे रहे थे , और मैं एक तरफा प्यार पर रिसर्च कर रहा था!अपनी डायरी में इस नज़्म को लिख भी रहा था !ख़ुद में खोया देखकर प्रोफ़ेसर साहब ने चॉक फैंककर मारा था और ये नज़्म वहीँ अधूरी छूट गई !ये नज़्म आज भी अधूरी है या शायद ये अधूरी ही मुकम्मल है .............................................. कल रात सारी, तेरे ख्यालों में गुज़री , नींद के कुछ कतरे आंखों से गुज़रे ,तो ख्वाबों में भी तुमको पाया !!!! ख्यालों में भी तुम और ख्वाबों में भी तुम ही थी , ये जानकर तुमको भी यकीं न आएगा , जो जानेगी दुनिया इसको तो ये आशिक दीवाना कहलायेगा !!! हाँ दीवाना हूँ तो दीवाना कहलाना क्या बुरा है ?? आंखों की नींद है गुम , जाने ये क्या माज़रा है ?? क्या इसी का नाम मोहब्बत है?? अगर हाँ ,तो मैं तुमसे दीवानावार मोहब्बत करता ...

हाय रे इंसानियत !!!!!!!!

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एक शहर धमाकों से फिर दहला है,फिर चंद इंसानों ने इंसानियत को फिर शर्मसार किया है ......क्या हमारी ज़िन्दगी उन्हीं लोगों के हाथ कठपुतली बन गई है ??? धुआं सा उठता दीखता है, कहीं तो आग ज़रूर लगी होगी ?? सवाल ये नहीं, की घर तेरा जला या मेरा ?? पर हर ज़ख्म की टीस पर इंसानियत कितना रोई होगी?? फिर से दहली इंसानियत , दहशतगर्दों का मकसद क्या रहा होगा ?? सवाल ये नहीं, की वो कौन था ?? पर इंसानियत को शर्मसार करने वाला, वो भी तो कभी इन्सान रहा होगा ?? हाय रे इंसानियत,तुझे अब इंसान से ही है खतरा, जाने तेरा नसीब क्या होगा ?? सवाल ये नही, कि कौन मरा ,या कौन ज़ख्मी हुआ ?? पर ए इंसान किसी के ज़ख्मो को महसूस कर , दर्द तेरे सीने भी ज़रूर होगा !!!!!!!!!

रास्ता ..................

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कई सालों बाद ,आज मुड़कर देखा मैंने , एहसास हुआ की बहुत दूर आ गया हूँ मैं , मेरा गाँव बहुत पीछे रह गया है ,अब तो आंखों से भी ओझल हो गया है , अपने आप को देखा तो पाया कि ये शहर मेरी रग रग में बस गया है ! मतलब,पैसा,फायदा ,नुक्सान,और घमंड , मेरी पाँच इन्द्रियां बन गए हैं ! अब तो मैं बस में किसी बुजुर्ग को खड़ा देखकर भी अपनी सीट नही छोड़ता! ऑफिस को देर न हो जाए ,इसलिए किसी अंधे को सड़क पार नहीं करवाता ! और न ही किसी गिरे हुए को रास्ते से उठता हूँ ,सोचता हूँ इससे क्या फायदा होगा मुझको ? अपने घमंड को आंच न आए ,इसलिए किसी भी छोटी बात पर झगड़ लेता हूँ ! अब किसी कि मदद करने के लिए ,कीमत मांगने में भी हिचकिचाहट नही होती मुझको ! हर बात को फायदे नुक्सान में तोलने लगा हूँ मैं ! मैं आया तो था इस शहर में बसने को कभी, पर मालूम न था कि ये शहर ही मुझमे बस जाएगा , सोचता हूँ वापस चला जाऊं , पर गाँव जाने के सारे रास्ते बंद से दीखते हैं , क्या तुम्हें कोई रास्ता मालूम है ??मैं पैसे देने को तैयार हूँ !

ऐसा लगा....

एक सुहानी सांझ जब छाए थे आसमान में तारे , मैं हुआ तुम्हारी यादों से रूबरू , ऐसा लगा कि तुम पास हो मेरे, ऐसा लगा कि तुम कर रही हो मुझसे बातें, ऐसा लगा कि दूर हो कर भी कितने पास हैं हम, और पास हो कर भी कितने दूर , ऐसा लगा कि तुमसे ही है हर खुशी मेरी ऐसा लगा कि तुमसे ही है ये जिंदगी मेरी , न जाने कब हुई सांझ से रैन , और न जाने कब आंखों में ही हो गई भोर, अब न तुम थी न तुम्हारा कोई निशाँ, बस पड़ी रह गई थी मेरे मन के आँगन में ओस , उस ओस को छुआ तो ऐसा लगा जैसे आंसू हैं तुम्हारे , ऐसा लगा कि जैसे मैं जलता हूँ , वैसे तुम भी तो जलती होगी, ऐसा लगा कि इस जलन में भी एक खुशी है, जो जल-जल कर तुमको भी मिलती होगी, ऐसा लगा कि जब हम दोनों का एक सा हाल है , तो कब तक रह सकते हैं दूर ?? ऐसा लगा कि आज ही हम फिर मिलेंगे , आज ही तुम आओगी ज़रूर ।

याद तुम आती रहीं.....

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आज सावन की बूंदों ने बरस कर फिर तेरी यादें ताज़ा कर दी .......................... जब सावन की बूँदें ,मेरी आखों से नमी चुराती रहीं , तब याद तुम आती रहीं, बस याद तुम आती रहीं ! जब काली रातें ,तेरी यादों की रौशनी से सितारों की चमक चुराती रहीं , तब याद तुम आती रहीं, बस याद तुम आती रहीं ! जब वक्त के दिए ज़ख्मो की टीस,मेरी आंखों को रुलाती रहीं, तब याद तुम आती रहीं, बस याद तुम आती रहीं ! जब बनकर हकीकत की परछाइयां,तुम मेरे ख्वाबों में आती रहीं, तब याद तुम आती रहीं, बस याद तुम आती रहीं ! तुम दूर हो इसलिए कुछ कह नहीं सकता, जब आओगी पास ,तो ये तारे भी देंगे गवाही, कि कैसे तुम्हारी यादें पल पल मुझे तडपती रहीं कैसे तुम हर पल मुझे सताती रहीं जब याद तुम आती रहीं, बस याद तुम आती रहीं !

"जस्ट अनदर डे" -इन बैंगलोर

सुबह के साढे सात बज रहे थे ,हमेशा की तरह आज भी मैं अपनी बालकनी में ऑफिस की कैब का इंतजार कर रहा था ! मौसम काफी सुहावना हो गया था,हल्की-हल्की बारिश शुरू हो गई थी ,इससे पहले की मैं मौसम की रूमानियत को महसूस करता ,कैब के हार्न ने ध्यान बँटा दिया ,और हमेशा की तरह मैं ऑफिस के लिए निकल पड़ा ! ऑफिस में सबकुछ हमेशा जैसा ही था,साथियों से दुआ सलाम करना,दर्जनो ई -मेल्स चेक करना , कॉफी ब्रेक लेना ,वापस काम पर लगना और दोपहर को लंच के लिए कैफेटेरिया जानासब कुछ हमेशा की तरह ही चल रहा था लंच से वापिस आकर मैं दोबारा काम पर लग गया ,करीब आधे घंटे के बाद ख़बर आई की शहर में बम धमाके हुए हैं ! कुछ इंसानों ने आज फिर इंसानियत का गला घोंटा था, पाँच जगहों पर सात बम धमाके हुए ,दो लोग मारे गए और करीब बीस घायल हुए थे ! एक बम धमाका हमारे ऑफिस से चंद मील दूर ही हुआ था ,उस धमाके की आवाज़ तो हम तक नहीं पहुँची पर ख़बर सुनकर सब सिहर ज़रूर गए थे ! सभी लोग अपने घरवालों और दोस्तों से संपर्क करने की कोशिश कर रहे थे ! ख़बरों से पता चला की शहर का ट्रैफिक ठप्प पड़ा है और फ़ोन लाइने भी प्रभावित हुई हैं ! डिपार्टमेन्ट के डाईरेक...

शाम

ये शाम सज कर आई है आज मेरे लिए , होठों पे लिए मुस्कान और जलाये तारों के दीये , कभी यों लगता है मैं बना हूँ इसके लिए, और ये बनी है सिर्फ़ मेरे लिए गर तुम भी देख पाओ इन अंधेरों की रौशनी को, तो जान जाओगे कि हर रौशनी जली है किसी अंधेरे के लिए

रात का वादा...

आज सोचा है मैंने की डूबते सूरज को सलामी देकर ,इक काली स्याह रात का वादा लूँगा, रात जिसमें तारे भी हों, जुगनू भी और तुम भी, जो बस बातों-बातों में ही कट जाए, जो बस आंखों-आंखों में ही गुज़र जाए, जिसके आगोश में हम हो जायें गुम, जिसके अंधेरे में सहर की चाहत को भी भूलें हम, जिसमे अधूरी रहे न कोई बात, जो बरसे हम पर बनकर रिमझिम बरसात , इक ऐसी रात का वादा लूँगा आज सोचा है मैंने की डूबते सूरज को सलामी देकर ,इक काली स्याह रात का वादा लूँगा,.......

सदियाँ बीती हैं!!

एक बेजान बदन को ही जिंदा कहे फिरता है , इंसानों को मरे तो सदियाँ बीती हैं , वो वक्त और था जब इन्सान हुआ करता था, और उसकी शरीक-ऐ-हयात इंसानियत भी जिया करती थी , किसी इन्सान का इंसानियत का हाथ थामे तो सदियाँ बीती हैं वो वक्त और था जब इन्सान की आंखों में हया थी , उसके दिल में चैन और रूह में सुकून भी था वो इज्ज़त किया करता था सबकी, और सबसे किया करता था प्यार, पर इन्सान का हया से नाता तोड़े सदियाँ बीती हैं वो वक्त और था जब इन्सान रिश्तों को मानता था , वो भाई ,बहन ,माँ,बाप और दोस्तों को पहचानता था, पर इंसान का हर रिश्ते का गला घोंटे तो सदियाँ बीती हैं वो वक्त और था जब इन्सान खुदा से डरता था, उसके सजदे में झुकता था, और किया करता था उसकी इबादत , पर आज इन्सान ही बन बैठा है खुदा, और इंसानियत के खुदा को मरे तो सदियाँ बीती हैं किसी सच्चे इन्सान को गर फिर से जिला सकूँ , उसके दिल में प्यार और आंखों में हया भर सकूँ, तो अपनी जिंदगी को कामयाब समझूंगा, पर इंसानियत को को जिलाने की इसी कोशिश में तो सदियाँ बीती हैं

मैं

खाक़सार हूँ मैं इस ज़माने में, सारा जहाँ है इक कैनवस,मुझ दीवाने का, खींचता रहता हूँ इसी कैनवस पर लकीरें, कुछ बन जाती हैं तसवीरें, कुछ रूप ले लेती हैं किसी अफ़साने का।

तू रोज़ नया.....

जिंदगी तू रोज़ नया गम देती है,हम हँस कर पिया करते हैं, तू मारने की करती है कोशिश,और हम हँस के जिया करते हैं

सहर

तुम जो ज़रा और देर रुक जातीं ,तो सहर हो ही जाती , हम दोनों आजाद हो जाते इस काली स्याह रात की गिरह से , खैर जाने भी दो , रात ही तो है, रात का काला अँधेरा ही तो है , तेरे बगैर मुझे सहर से क्या सरोकार, तेरे बगैर तो सबा भी लू लगती.